Zindagi Ka Hisab

ज़िंदगी का हिसाब

अनगिनत बहस-मुबाहिसे, बेहिसाब नफ़रतें
ताने, शिकायतें, इल्ज़ामात, तशद्दुदगर्दी,
धर्म-कर्म-मज़हब-जाति-प्रजाति-भाषा-ज़ुबान
कारण-वजहें-बहाने कुछ भी बन जाते हैं।
क्या कभी तनहाई में अपने अंदर झांक कर देखा है
कि तुम कौन हो, तुम्हारी असली पहचान क्या है?
क्या कभी फुर्सत से ज़िंदगी का हिसाब सोचा है?
कितनी नेकियां बटोरी, कितनी नफ़रतें बाँट दीं,
कितने उजाले समेटे, कितने अँधेरे बिखरा दिए,
हर सुबह की धूप और चांदनी रात के बावजूद?
कब-कैसे-कितने झूठ चुन लिए सच की पैमाइश में,
कितने रिश्ते महकाए प्यार-मोहब्बत की खुशबू से,
कितने रुख़सत कर दिए अपनी जुबां की तुर्शी से?
दुनिया के शोर में क्या कभी अपनी रूह के सन्नाटे को सुना है?
इंसानियत की ख़ुदाई नेमत को ख़ुलूस से क़ुबूल किया है?
ऐ भोले मानुस, घर का पता तो मालूम है, पर अपने असली ठिकाने की खबर है क्या?





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