इन्तेहा 

कुछ वक़्त की कमी, कुछ बदलते ज़माने की दुशवारियाँ,
बेख़बर सी बेरहम सी पल-पल बढ़ती गयी दूरियाँ,
और फ़िर कुछ यूँ हुई हमारी बेसब्री की इन्तेहा,
कि न तो हम रहे, और ना ही उनके कदमों के निशाँ।

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